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SAKSHI HAI PEEPAL (साक्षी है पीपल)

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समय के साथ बच्चे बढ़ने लगे। बाँस, लकड़ी तथा घास-फूस का बना घर ऐसा लगता था, जैसे किसी ट्रेन का लम्बा कटा हुआ डिब्बा हो। एक ही लम्बा घर और उसमें सभी पत्नियों के अलग-अलग चूल्हे। बच्चों के तो बस मजे-ही-मजे। इतनी सारी माँएँ जो
थीं उन्हें प्यार करने के लिए। एक ने खाना नहीं दिया, तो दूसरी ने खिला दिया। एक ने मारा तो दूसरी ने प्यार किया। पिता रात को पहली बीवी के साथ ही दिखते, परन्तु सुबह दूसरी, तीसरी या चौथी के साथ दिख जाते। बच्चे सकपकाने लगते। वे आँखें मीच-मीचकर उन्हें देखने लगते। अब तो बड़े लड़के खोदा से न रहा गया। उसने भी अपने पिता का अनुसरण करना शुरू कर दिया। वह भी हर रात अलग-अलग माँओं के साथ सोने लगा। उसकी माँ ने कहा, ‘‘देखो देखो, इस लड़के को क्या हुआ है? अपने पिता के पीछे-पीछे चलने लगा है।’’ इस पर नन्हें खोदा ने भोलेपन से कहा, ‘‘पिताजी से तो कुछ कहती नहीं, सिर्फ मुझे डाँटती हो।’’ घर में ठहाकों की आवाज गूँजने लगी पर खोदा को समझ में नहीं आया कि हुआ क्या है। अपमानित खोदा उन ठहाकों के बीच हुआँ...हुआँ... करके इतने जोर से रोने लगा कि सब एकदम से चुप हो गए, जैसे किसी ने व्हीसिल बजा दी हो और सभी उसकी तरफ प्रश्नसूचक नज़रों से देखने लगे। ‘‘अरे बस भी करो, जब देखो हा, हा, ही, ही, हे, हे करके हँसती रहती
हो। बेटी नहीं, बेटा है मेरा। मेरा वंश आगे ले जीएगा ये।’’ ताजुम ने बेटे को गोद में प्यार से लेते हुए कहा था। रूखे-बिखरे बाल छोटी-छोटी उत्सुकता से भरी आँखें आबू की तरफ उठ गई, जो बहुत देर से आग जलाने की कोशिश कर रही थी। उसने सोचा, मैं तो मरने के बाद तितली बनकर जंगल-जंगल, पहाड़-पहाड़ उड़ती फिरूँगी। फिर मैं किसी की बेटी तो ऊँ हूँ...। कभी नहीं। यह थी ऐपा की दीदी यामी, जो समय से पहले ही परिपक्व हो गई थी।
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